शत्रु द्वारा बारम्बार तन्त्र क्रियाओं के किये जाने पर शत्रु यदि रुकने की बजाए और गहरे तन्त्र आघात देने लगें, प्राण हरण पर ही उतर आएँ अर्थात मानव संवेदनाओं की सीमा को लाँघ कर घिनौनी हरकतों पर उतर आएँ तो उसकी क्रिया को उस पर वापिस इस तरह से लौटना की शत्रु को आपके दर्द का एहसास हो इसे विपरीत प्रत्यंगिरा कहा जाता है I प्रत्यंगिरा और विपरीत प्रत्यंगिरा में ये भेद है की प्रत्यंगिरा शक्ति तो सिर्फ वापिस लौटती है किन्तु विपरीत प्रत्यंगिरा शत्रु को ही वापिस चोट पहुंचाती है और खुद की निश्चित रूप से रक्षा करती है I इस प्रयोग के बाद शत्रु आप पर दोबारा यह प्रयोग कभी नहीं कर सकता I उसकी वह शक्ति खत्म हो जाती है I
मन्त्र : ॐ ऐं ह्रीं श्रीं प्रत्यंगिरे मां रक्ष रक्ष मम शत्रून् भंजय भंजय फें हुं फट् स्वाहा I
विनियोग : अस्य श्री विपरीत प्रत्यंगिरा मंत्रस्य भैरव ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, श्री विपरीत प्रत्यंगिरा देवता ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोग: I
II माला मन्त्र II
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ कुं कुं कुं मां सां खां पां लां क्षां ॐ ह्रीं ह्रीं ॐ ॐ ह्रीं बां धां मां सां रक्षां कुरु I ॐ ह्रीं ह्रीं ॐ स: हुं ॐ क्षौं वां लां धां मां सा रक्षां कुरु I ॐ ॐ हुं प्लुं रक्षा कुरु I ॐ नमो विपरीतप्रत्यंगिरायै विद्याराज्ञी त्रैलोक्य वंशकरि तुष्टिपुष्टिकरि सर्वपीड़ापहारिणि सर्वापन्नाशिनि सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिनि मोदिनि सर्वशस्त्राणां भेदिनि क्षोभिणि तथा I परमंत्र तंत्र यंत्र विषचूर्ण सर्वप्रयोगादीन् अन्येषां निवर्तयित्वा यत्कृतं तन्मेSस्तु कपालिनि सर्वहिंसा मा कारयति अनुमोदयति मनसा वाचा कर्मणा ये देवासुर राक्षसास्तिर्यग्योनि सर्वहिंसका विरुपकं कुर्वन्ति मम मंत्र तंत्र यन्त्र विषचूर्ण सर्वप्रयोगादीनात्महस्ते I